मेरे मित्र धीरज ने मुझे दफ़्तर में उनकी स्वलिखित चार पंक्तियाँ सुनाईं
न ये पैसा होता, न ये इच्छाएं होतीं ,
न दोस्त तू अलग होता, न दोस्त मैं जुदा होता,
न ये पैसा होता, न ये इच्छाएं होतीं ,
न दोस्त आज तू दुखी होता, न दोस्त आज मैं ग़मगीन होता ।
----धीरज पुनिया |
यह पंक्तियाँ जैसे मेरे दिल को गहराइयों तक छू गईं और जन्मा हुआ इस कविता का,
भूख
न ये भूख होती,न ये मजबूरियाँ होतीं ,
न ये इन्सां बुरा होता,न वो इन्सां दुखी होता ।
चंद रोटियों के लालच में,
बिकते हैं ईमान यहाँ
उभरती हैं लकीरें माँ के सीने पर
और बनते भारत पाक वहाँ ।
इन्सां नहीं है भ्रष्ट
भूख करती ईमान नष्ट
पनपता है पैसा विदेशों में
बिलखते माँ के लाल यहाँ ।
किसी को भूख पैसे की
कोई इज्ज़त का है भूखा
किसी को भूख जिस्मों की
कोई है प्यार का भूखा ।
न ये भूख होती, न पैसा होता,
न इन्सां का नष्ट, 'ज़मीर ' होता
होता दुनिया में अमन चैन,
न दुनिया बनानेवाला ख़ुदा होता ।
____ संकल्प सक्सेना ।
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