जहां कभी
ख़ुशियाँ थीं
बहारें थीं
गीतों के गलियारे थे
ग़ज़लों से महके ग़लीचे थे
नज़मों में ढलती शाम थी
वहीं आज ख़ामोशी है,सन्नाटा है
शाखों से टूटे पत्तों पर
पतझड़ के चलने कि, बेबस आहट है
लेकिन! फिर भी मुझे इक आस नज़र आती है
फिर से कहीं वो, एक उम्मीद जगा जाती है
अँधेरे कि चादर को हल्का सा उठाती है
नन्ही सी गौरैया बहारों को बुलाती है
यका याक उषा कि किरण नज़र आती है
समर में , निशा से, उषा जीत ही जाती है
खोए हुए कलरव को, वो फिर से जगाती है
गाओ मेरे दीवानों , वो सबको बुलाती है।
__ संकल्प सक्सेना 'मुरीद'।