Wednesday, April 2, 2014




आवाहन 

जहां कभी 
ख़ुशियाँ थीं
बहारें थीं 
गीतों के गलियारे थे 
ग़ज़लों से महके ग़लीचे थे 
नज़मों में  ढलती शाम थी 
वहीं आज ख़ामोशी है,सन्नाटा है 
शाखों से टूटे पत्तों पर 
पतझड़ के चलने कि, बेबस आहट है 

लेकिन! फिर भी मुझे इक आस नज़र आती है 
फिर से कहीं वो, एक उम्मीद जगा जाती है 
अँधेरे कि चादर को हल्का सा उठाती है 
नन्ही सी गौरैया बहारों को बुलाती है 
यका याक उषा कि किरण नज़र आती है 
समर में , निशा से, उषा जीत ही जाती है 
खोए हुए कलरव को, वो फिर से जगाती है 
गाओ मेरे दीवानों , वो सबको बुलाती है। 
                                              __ संकल्प सक्सेना 'मुरीद'।