आज लगभग जगजीत जी और मेहंदी हसन जी जैसे ग़ज़ल गायकों को गए २ साल से ज़्यादा समय बीत चुका है। उम्र कि मजबूरियों की वजह से ग़ुलाम अली जी ने भी गाना छोड़ दिया है। इस दौरान कोई नया ग़ज़ल गायक न तो सामने आया न ही कोई एल्बम रिलीज़ हुयी। ऐसा लगता है जैसे अब ग़ज़ल जो हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रही है, सच में दम तोड़ रही है। कोई ऐसा नज़र नहीं आता जो इसका हाथ थामे और इसे दूर तक ले जाए। मेरी नज़र में ग़ज़ल कहने और सुनने वालों की कोई कमी नहीं है और शायद कभी नहीं होगी लेकिन कमी ऐसे लोगों को मौक़ा देने में ज़रूर आ गई है जो ग़ज़ल को आगे लेके जाना चाहते हैं।
कहाँ गई है ग़ज़ल ?
चंद दरवाज़ों में, सिमट गई है ग़ज़ल
फिर से मौकों पे, निपट गई है ग़ज़ल।
फिर किसी दिल के निकट, गई है ग़ज़लचंद दरवाज़ों में, सिमट गई है ग़ज़ल
फिर से मौकों पे, निपट गई है ग़ज़ल।
फिर से धड़कन को, तरस गई है ग़ज़ल।
मुक़र्रर हो ! ये सदा, ग़ुम हुई है कहीं
शोर के आलम में, झुलस गई है ग़ज़ल ।
न साक़ी हैं, न पैमाने, बज़्म खाली है
अब तो रिन्दों को, तरस गई है ग़ज़ल ।
तलत, मेहंदी के, सुरों ने संवारा था जिसे
उनके नामों की, रह गई है ग़ज़ल।
कुछ 'मुरीद' आये हैं, दर पे उसके
अब तो अफ़साना, बन गई है ग़ज़ल।
__ संकल्प सक्सेना 'मुरीद'।
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