Wednesday, February 4, 2015


भोर

सन्नाटा था चारों ओर
दूर दूर तक नहीं थी भोर
किरन सूर्य  की थी नदारद
सो रहे थे चादर ओढ़।

मेरे संग सोई थी क़लम
कहती क्यों लिक्खें अब हम
ना कोई  पढ़नेवाला है
ना कोई सुननेवाला है
मेरे दिल की बातें हैं सब
चादर ओढ़े सोते हैं सब।

इसे छोड़ !
देखा जो नभ को
ज़र्रा ज़र्रा चमक रहा था
धुंद थोड़ी जमी हुई थी
सूरज छुपके चमक रहा था।

फिर हमने भी ली अंगड़ाई
क़लम कहे, ओ मेरे भाई
सुबह हो गई , सुबह हो गई
चलो करें दिन की अगुवाई।

फिर तो सारे साथी आए
सबने अपने हाल सुनाए
मीठी मीठी बातों के गुड़
और साथ में  जीवन के सुर।

आखिर में सब वादा करते
रोज़ शारदे वन्दन करके
अपनी क़लम चलाएंगे हम
प्रेम के गीत सुनाएंगे हम। 

चाह नहीं है तारीफों की
चाह  हमें है एहसासों की
कुछ ऐसे सुननेवालों की
जो प्रेम की दौलत  रखते हैं
मेरे प्रेम की बातों का वो
प्रेम से उत्तर देते हैं। 
                                  __संकल्प सक्सेना 'मुरीद'।