Monday, September 11, 2017


जाने कहाँ

ग़ज़लें जाने कहाँ खो गईं, नज़्में जाने कहाँ खो गईं 
जीवन के इन दो राहों पे, शामें जाने कहाँ खो गईं। 


आँधियारों से रोज़ लड़ाई, परवाने का खेल हो गई
खोज रहा था वो मंज़िल को, राहें जाने कहाँ खो गईं।

दूर नज़र आई वो मुझको, आहें जाने कहाँ खो गईं
वो जब मेरे पास खड़ी थी, सांसें जाने कहाँ खो गईं।

घड़ी जो करती टिक टिक टिक टिक, ख़ामोशी कि जुबां हो गई
यादों की मौजों में बहकर, रातें जाने कहाँ खो गईं।

दर पे तेरे खोए थे हम, धड़कन जाने कहाँ खो गई
रमा हुआ था 'मुरीद' तुझ में, बज़्में जाने कहाँ खो गईं।

__संकल्प सक्सेना 'मुरीद'।


नानाजी
*******
मेरे जीवन, मेरे लेखन के अभिन्न अंग,मेरे मार्गदर्शक ......उन्ही को समर्पित हैं ये जज़्बात जिन्हें शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। 
आँखें नम हैं। 

मायूस है, उदास है,
ये कैसी अनमिट प्यास है 
सब कुछ है पास मगर 
कहाँ गए जज़्बात हैं।

क़लम है, स्याही, बूँद नहीं 
दर्द है, धड़कन नहीं 
पथराई सी आँखें हैं 
बेहता कोई जुनूं नहीं

आख़िर कब तक !

आख़िर कब तक ये अफ़साने 
बनते ही घुट जाएंगे 
मेरे भीतर खिलते खिलते 
फूल यूँही मुरझाएंगे।

जिनकी साँसें, जिनकी सीरत 
मुझ में प्यास जगाती थीं 
आज नहीं हैं पास मेरे वो 
गीत मेरे क्या गाएंगे ?
आँच नहीं है उन सांसों की 
दर्द कहाँ से लाएंगे।

अब तो बस यादों के दर्पण 
'मुरीद' समझ रहे हैं दर्शन 
पुंज प्रकाश तुम थे हमारे 
मेरे गीत तुम्ही को तर्पण। 
                                                 __संकल्प सक्सेना 'मुरीद'।